भीड़ के इस जंगल में अपने जज़्बातों को संभाले,
अपनी यादों को लपेटता, अपने आँसुओ को समेटता,
ये किस ओर जा रहा हू मैं...
उड़ाकर इन प्रतिकूल परिस्थितियों का उपहास,
कराने दुनिया को अपने अस्तित्व का आभास,
लगाकर अपना सर्वस्व दाँव पर,
ये किस ओर जा रहा हू मैं...
रूठती अपनी हठ(ज़िद)को मनाता,
निचुड़ते संयम को सहलाता,
रोज़ रोज़ अपने-आप को ही मनाता,
ये किस ओर जा रहा हू मैं...
ना कोई दोस्त ना कोई दुश्मन,
अपने आप से ही जूझता मेरा अंतर्मन,
अपनी ही खुशियों का करके गबन,
ये किस ओर जा रहा हू मैं...
अपनी ही हँसी से खुद को रुलाता,
मैं बनकर विदूषक, दुनिया को हंसाता,
इन अपनो की भीड़ में अकेलेपन को झेलता,
ये किस ओर जा रहा हू मैं...